बेरोजगारी और दिल्ली शहर

आज मोबाइल पर न्यूज फ़ीड में एक नोटीफ़ीकेशन आया ख़बर थी मुखर्जी नगर में सरकारी परीक्षा की तैयारी कर रहे युवक ने की आत्महत्या, लड़के का नाम था विवेक वर्मा।

यूँ तो इस तरह की खबरें अक्सर ही सुनने मिलती हैं पर आज क्या हुआ था कि नाम पढ़ते ही मेरे कान सुन्न पड़ गए एसा लगा किसी ने कान के पास बम फोड़ दिया हो।

ये विवेक भैयाथे। मेरे ही शहर के, जिला टोपर,पढ़ाई लिखाई में अव्वल एकदम।

दूसरों में हौसला पैदा करने वाले ने ऐसा कदम क्यों उठाया।

शायद इस क्यों का जवाब मेरे पास था। मैं जानता था ये कोई आत्महत्या नहीं है ये एक खून था । ज़िम्मेदार कंधो पर उम्मीदो के बोझ का, ये खून था हर बार लड़कर खड़ी हुई उस हिम्मत का जो वक़्त के साथ कमजोर और निराश हो गयी थी।

याद आता है मैं उनसे एक साल पहले दिल्ली में मिला था।

उस समय दिल्ली आए मुझे लगभग तीन महीने से ज़्यादा हो गया था पर विवेक भैयासे अभी तक मिलना न हुआ था। शायद इतनी बड़ी दिल्ली और इसकी चकाचौंध क़े चक्कर में ही उलझा था मैं।

विवेक भैयाहमारे ही शहर के थे, शहर से नौकरी के लिए दिल्ली जाने वालों में से वो भी एक थे। पाँच साल पहले घर से सर पर कफ़न बांधकर निकले थे कि सरकारी महकमे में नौकरी लिए बिना वापस नहीं आएँगे। ये विश्वास या फिर अति आत्मविश्वास उनको अपने स्कूली टोपर होने की वजह से था पर क़िस्मत ने उनके लिए कोई और ही कहानी बुनी थी।

इन पाँच सालों में महंगाई के साथ ही साथ और भी बहुत चीज़ें बढ़ गईं थीं जैसे की भैयाकी सरकारी इम्तिहान देने की उम्र और सरकारी परीक्षाओ में होने वाली धांधली।

हर बार रिसल्ट कैंसल हो रहे थे परीक्षा दोबारा हो रही थी पर उम्र की गिनती दोबारा नहीं लौटा करती।

विवेक भैयाभी इससे अछूते नहीं थे।

जब उनके रूम पर पहुँचा तो उन्होंने तो सब बड़ा अस्त व्यस्त था। भैयाभी बहुत बुझे २ से लग रहे थे शायद इस असफलता की निराशा ने ही उनको अवसाद की ओर धकेल दिया था।

मैंने हाल चाल लेते हुए कहा कैसे हैं विवेक भईया, बड़े टाईम बाद मिलना हुआ आपसे। आप तो पढ़ाई के साथ २ मस्तीख़ोरो के सरदार थे। ये उदासी क्यों?

घर क्यों नहीं चलते।

विवेक भैयाने हाथ से बैठने का इशारा किया और मुस्कुराते हुए बोले – सब बताता हूँ थोड़ा साँस तो ले लो।

दरअसल बात ये है मोहित भाई। जब तक तुम कुछ बन नहीं जाते, अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते या फिर कह लो “बेटा क्या कर रहे हो आजकल” का बिना घुमा फिराए सही जवाब देने के क़ाबिल नहीं बनते तब तक समाज तुम्हें अपनी नियत के तराज़ू में रोज़ ही तौलता रहता है। । तुम्हारी हर एक साँस का हिसाब उनके पास है। ये वो समय होता है जब तुम एक चाय के कुल्हड़ से लेकर एक छोटी गोल्ड फ़्लेक तक के लिए पराश्रित होते है और तुमसे कम बौद्धिक क्षमता के लोग तुम्हें आकाश चोपड़ा और चेतन आनंद बनकर तुम्हें जज कर रहे होते हैं।

बेरोज़गारी का एक लम्बा अरसा एक लड़के की ज़िंदगी की नियत और नियति दोनो ही बदल देता है। कल तक जो चीज़ें मेरे वजूद में भी न थीं आज मैं उनसे सरोकार रखने लगा हूँ। मात्र एक महीने में मोबाइल बनाना सीखें। घर बैठे कमाएँ दस हज़ार रुपये। विज्ञापनों। । बम्पर भर्ती। । आवश्यकता है जैसे विज्ञापनो के पीछे भागने लगा हूँ। की कहीं कोई तो होगा जो कुछ देगा। बारिशों में ठेले और ट्रक के नीचे बैठकर ख़ुद से ज़्यादा अपने रेज़ूम (सिवि) को बचाने की जद्दोजहद करता हूँ।

हर एक ऑटो रिक्शा के पीछे लगा प्रतिमाह कमाये का पोस्टर देखना मेरी आदत बन चुका है। जॉब जॉब जॉब। दसवीं से लेकर ग्रैजूएट प्रतिमाह कमायें इतना । बस यही मेरी ख़्वाहिश और मजबूरी बनकर रह गया है।

हा हा हा। एक झूठी हँसी हँसकर विवेक भैयाचुप हो गए। शायद उन्हें कहीं ये एहसास हुआ की इन सबका मुझ पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जस्ट अभी ही तो मैंने जिदंगी की लड़ाई में कदम रखा था कहीं सुनकर ही न हार जाऊँ।

अभिमन्यू ने भी चक्रव्यूह भेदन सुनकर ही सीखा था। सुनने के सकारात्मक और नकारात्मक दोनो प्रभाव होते हैं।

कुछ देर की ख़ामोशी के बाद मुझसे बोले मैगी खाओगे मोहित । भूख लगी होगी तुम्हें। अपनी बातों से बहुत पका दिया तुम्हें अब कुछ पकाकर खिला भी दूँ।

अपनी आँखों की नमी छुपाने के लिए भैयाबीच २ में टी शर्ट से आँसू पोंछ लेते थे। ।

बस भाई कमज़ोर ना पड़ इस बात का धयान अपने आँसुओं से ज़्यादा था उनको।

पर इश्क़,मुश्क और अश्क़ छुपाए नहीं छुपते।

उनका दर्द और बेबसी समझ रहा था मैं। उस दिन पहली बार विवेक भैया में मैंने एक हारा हुआ योद्धा देखा था।

माहौल को बदलने के लिए मैंने तब एफ एम रेडियो आन किया । और गाना बज था था। ”हम तेरे शहर में आए है मुसाफ़िर की तरह”

और इस शहर में अधिकतर बेरोज़गार मुसाफ़िर ही आते थे।

किसी किसी की तो आरज़ू पूरा कर देता था ये दिल्ली शहर और बाक़ियो की जिंदग़ीयों में बहार लाना शायद इसके बस में न था।

टाईमेक्स ने 9। 30 बजा दिया था, ओफिस के लिए लेट हो रहा था मैं, एकाएक वर्तमान में आया मैं।

बस यही सोंचते २ काम की ओर चल पड़ा की अब किसी और शहर से कोई और विवेक न निकले।

तभी इन तबाह हुई ज़िंदगीयो की उजड़ी उम्मीदों को ज़ाहिर करने को निदा फजाली की बस वो ग़ज़ल याद आई। ।

“किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

किसी को जमी तो किसी को आसमा नहीं मिलता।

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