भगत सिंह कोमरेड और कोरोना

दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल

साबरमती के संत क्या तूने ही बस किया कमाल।

आधी ज़िंदगी तो बस यही कहानी सुनते २ गुजर गयी। आज़ादी चरखे से आयी थी। चरखा न हुआ आज़ादी का टिकट हो गया।

इस चरखे से बने खादी लिबास के पीछे वो आवाज़ क्यों दब रही थी जो गांधी के डोमिनीयन की अपेक्षा राष्ट्र के पूर्ण स्वराज्य की माँग करती थी, जो इंक़लाब को ज़िंदाबाद और साम्राज्यवाद को मुरदाबाद कहती थी, जिसे समाजिक समरस्ता चाहिए थी।

चौरी चौरा कांड जलियाँवाला और ऐसी कितनी ही घटनाओं को गांधी की क़ड़ी निंदा ने उन्हें आज का राजनाथ सिंह बना डाला था। कभी कभार आपकी निष्क्रियता को सामने वाला आपकी कमजोरी समझ बैठता है। क्या पता आपका कुछ न करना सामने वालों को ये संकेत दे की आप कायर और नपुंसक हैं ऐसे समय में आपका एक कठोर प्रहार सामने वाले के मन में आपका भय पैदा करता है क्योंकि बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ज़रूरत पड़ती है। ऐसे समय में सबको एक सिद्धांत पर चलकर राष्ट्र सहयोग और समाज के पुनरुत्थान के लिए आगे आना पड़ता है।

भगत सिंह ऐसे ही एक कोमरेड थे जो साम्राज्यवाद पूंजीवाद के अंत और पूर्ण स्वराज्य का साकार सपना लिए क़ुर्बान होने निकले थे

ये आजकल के कामरेड की तरह नहीं जो निजी और राजनीतिक हितों के लिए लेकर रहेंगे आज़ादी के नारे लगाते हैं। क्या कामरेड का मतलब भी समझा है इन्होंने या फिर लेनिन मार्कस और चे गुएवेरा का नाम तो रट लिया पर इनकी क्रांति का मतलब अपने स्वार्थों के अनुरूप ढाल लिया।

एक कामरेड निसवार्थ भावना और सामाजिक हितों के लिए जीता और मरता है। वो मरने और मारने की भावना में विश्वास ज़रूर रखता है लेकिन अकारण खून खच्चर का पूर्णविरोध करता है। एक कामरेड वास्तव में सन्यासी है जो अपना घर बार प्रेम सर्वस्व त्यागकर समाज के उत्थान के लिए प्राणों का बलिदान करता है।

उन्हें पता था जो कांग्रेसी नीतीया हैं उस हिसाब से कल आज़ादी के बाद सरकार में गोरे बाबुओं की जगह भूरे बाबू ले लेंगे और देश का दुर्भाग्य तो देखो हुआ भी ऐसा ही।

उनका कहना था कि अमीर और अमीर होते जाएँगे और ग़रीब और गरीब होते जाएँगे, श्रमजीवियों को उनका अधिकार न कल मिलता था न आज मिलेगा।

भगत सिंह आप सही थे हमने श्रमजीवियों के लिए क्या किया एक श्रमजीवी एक्सप्रेस चलाने के सिवाय।।।।आज़ादी के इतने सालो बाद आज भी श्रमिकों को उनकी मेहनत का सही मूल्य देने में सरकार असमर्थ है आख़िर क्यों ?

क्योंकि एक आवाम एक आवाज़ के रूप में हम असमर्थ है उनको उनका हक़ दिलाने में, हम असमर्थ हैं उनको बराबरी का दर्जा दिलाने में, ये समाजिक विषमता और भेदभाव का काला चोला जब तक नहीं उतारते राष्ट्रीय एकता अखण्डता और भगत सिंह के सपनों का बसंती चोला हम कभी धारण नहीं कर पाएँगे या सही मायनो में बोलें तो कभी उस चोले के लायक़ नहीं बन पाएँगे।

आज हम कोरोना के ग़ुलाम बने हुए हैं ये ठीक वैसे ही आतंक मचाए हुए है जैसे गोरी सरकार ने मचाया था। आज एक कामरेड की तरह मिलजुलकर इसका मुक़ाबला करना है, हमें सेनीटाईज़र जैसे हथियारों से लैस रहना है नहीं तो ये महामारी फ़िर से एक जलियाँवाला बाग दोहराएगी।

पर समस्या ये है की देशद्रोही और स्वार्थी तब भी थे और आज भी है। ये वी आई पी कल्चर हमें मार देगा। ऊँचे पद का आदमी अपनी ज़िम्मेदारियाँ नहीं समझ रहा जैसे तब गांधी ने नहीं समझी थी जो उस वक़्त फाँसी रोक सकते थे और देश की स्वतंत्रता की भावना को जीवंत रख सकते थे। ठीक वैसे ही आज सेलिब्रिटी और निष्ठुर लोगों ने भी समाज को बचाने की अपेक्षा अपना स्टारडम बचाना ज़्यादा ज़रूरी समझा।

हमारी आस्था अपनी जगह है और स्वास्थ अपनी जगह आज जब इंसान निष्प्राण और निष्फल होकर हाथ फैलाए खड़ा है तब इस भयावह स्थिति में मंदिरों, मस्जिदों गिरिजाघरों ने अपने दरवाज़े ठीक उसी तरह बंद कर लिए हैं जिस तरह से गांधी जी ने जलियाँवाला बाग की निर्ममता देखकर असहयोग आंदोलन को वापस लेकर क्रांतिकारियों की भावनाओ के लिए किए थे।

जब सर्वेसर्वा ही स्वयं निष्फल हो तो प्रार्थी क्या करे।

ऐसे समय में सामने आता है विज्ञान और तर्क। इंसान से ज़्यादा आसमानी ताक़त पर भरोसा करने वाला इंसान आख़िर नास्तिक क्यों बनता है, इन्ही सब कारणो से । क्या इलाज मस्जिदों में होता है या मंदिरो में। आँख मूँदे हमारे जैसे करोड़ों लोग मर रहे हैं अपना धर्म बचाने को जबकि मानव सभ्यता ख़त्म होने की कगार पर पहुँच सकती है। दरवाज़े अस्पतालों के खुले हैं, वहाँ बैठा इंसान ही इंसान को बचा रहा है न कि कोई तीसरा।

भगत सिंह नास्तिक थे, बहुतो को लगता था की चार किताबे पढ़कर और अपनी लोकप्रियता की वजह से वो नास्तिकता का ढकोसला करते हैं पर इन सब बातों को वे अपनी तार्किक क्षमता से निरर्थक साबित करते रहे। उनके दादा एक आर्यसमाजी थे और एक आर्यसमाज़ी कुछ भी हो पर नास्तिक नहीं हो सकता।

फाँसी के तख़्त पर भी हवलदार छतर सिंह के ये कहने पर” ओए भगत हुड़ तो रब दा नाम ले ले, वो तेनु बचा लेवेगा पुत्तर।”

लेकिन उन्होंने ईश्वरीय सत्ता स्वीकार नहीं कि, अपने सिद्धांतों पर आख़िर तक वो डटे रहे। आख़िर किसी के सच्चे विश्वास की पहचान जीवन के सबसे कठिन समय में होती है और वो विजयी हुए।

हम आज कितना भी प्रयास कर ले आडंबरों से बाहर नहीं आ सकते पर ये सोचना होगा की ये मानव सभ्यता मानव ही बचाएगा, कोई तीसरा नहीं।

इसलिए इंसानियत पर विश्वास करे, धर्म सनातन हो या पुरातन बनाया आख़िर इंसान ने ही है।

सो हे कामरेड्स तैयार रहो और नेस्तनाबूत कर दो इस कोरोना वायरस की चाईनीज सरकार। क्योंकि बेटा “शहीदों की चितायों पर लगेंगे हर बरस मेले” पर तुम्हारी पर एक्की बार लेगेगो बार२ नई।

इसलिए एक कामरेड की तरह ख़ुद की और समाज की सुरक्षा करें, क्योंकि जब एक जिम्मेदार समाज है तभी एक सफल देश है।

बाक़ी आज़ादी के सपने के सिवाय भगत सिंह के सभी डर ही सच हुए हैं चलो आज मिलकर उन्हें श्रधांजलि दें और कहें की कोरोना से इस लड़ाई में हम सब देशवासी एक साथ हैं। बाक़ी लोंग लिव रेवोलूशन।

इंक़लाब ज़िंदाबाद।।

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